Friday, June 4, 2010

काम तो अपने ही आएंगे, पैसा नहीं../ कीर्ति राणा, शिमला


काम तो अपने ही आएंगे, पैसा नहीं

- कीर्ति राणा, शिमला

ऐसा क्यों होता है कि साया भी जब हमारा साथ छोड़ जाता है तभी हमें अपनों की कमी महसूस होती है। शायद इसीलिए कि जब ये सब हमारे साथ होते हैं तब हमें इनकी अहमियत का अहसास नहीं होता। विशेषकर राजनीति में अपने नेता के लिए रातदिन एक करने वाले तब ठगे से रह जाते हैं कि लाल बत्ती का सुख मिलते ही नेता अपने ऐसे ही सारे कार्यकर्ताओं को भूल जाता है। सुख-दु:ख के बादल उमड़ते घुमड़ते रहते हैं लेकिन छाते की तरह खुद को भिगोकर हमें बचाने वाले अपने लोगों के त्याग को हम अपने प्रभाव के आगे कुछ समझते ही नहीं। ऐसे ही कारणों से हमें बाद में पछताना भी पड़ता है।


माल रोड की ओर से आ रहे अधेड़ उम्र के एक व्यक्ति मुझ से टकरा गए। कुछ गर्मी का असर और कुछ उनकी लडख़ड़ाती चाल, मैंने ही सॉरी कहना ठीक समझा। बदले में वो ओके-ओके कहकर ठिठक गए तो मुझे भी रुकना ही पड़ा। फिर करीब पंद्रह मिनट वो अंग्रेजी-हिंदी में अपना दर्द सुनाते रहे कि दिल्ली में रह रहे पत्नी बच्चों से कई बार फोन पर कह चुका हूं शिमला आ जाओ, आजकल करते-करते छह महीने निकाल दिए। कमरा लेकर अकेले रह रहे उन सज्जन की बातों से यह भी आभास हुआ कि पति पत्नी में कुछ अनबन चल रही है। अकेलेपन की पीड़ा, बच्चों की याद और कुछ नशे के खुमार से उनकी आंखें छलछला आई। बार बार कह रहे थे पत्नी बच्चों के प्यार से प्यारा दुनिया में और कुछ नहीं, अभी वे लोग आ जाएं तो शिमला के ये गर्मी भरे दिन भी ठंडे हो जाएंगे मेरे लिए। अपना गम सुनाने के साथ ही वे ङ्क्षड्रक करने का सच स्वीकारने के साथ यह भी पूछते जा रहे थे स्मैल तो नहीं आ रही है, ज्यादा नहीं बस दो तीन पैग लिए हैं। मैंने जैसे-तैसे उनसे गुडबॉय कह कर पीछा छुड़ाया।

मैंने कई लोगों को देखा है, यूं तो फर्राटेदार हिंदी में बात करते रहते हैं लेकिन पता नहीं इस अंगूर की बेटी का क्या जादू है, इसका सुरूर चढ़ते ही अंग्रेजी में शुरू हो जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि लोग अंग्रेजी शराब के कारण अंग्रजी बोलने लगते होंगे। दरअसल मुझे तो कुछ लोगों के साथ यह ठीक से अंगे्रजी नहीं बोल पाने की कुंठा लगती है जो थोड़ा सा नशा होने पर कुलांचे मारने लगती है। इस बहाने ही सही आदमी के मन में दबा सच और उसकी कुंठा बाहर तो आ जाती है। हल्के से नशे ने उस अधेड़ व्यक्ति के लिए तो आत्म साक्षात्कार का ही काम किया होगा वरना इतनी तीव्रता से बीवी, बच्चों से दूरी का अहसास नहीं होता।

इसके विपरीत हम अपने आसपास ऐसे लोगों को भी देखते हैं जो दौलत के नशे में चूर होने के कारण हर चीज को पैसे से ही तोलते हैं उन्हें किसी की भलाई, अपनेपन की भी परवाह नहीं होती क्योंकि ऐसे लोग उस मानसिकता के होते हैं जो यह मानकर चलते हैं हर चीज पैसे से खरीदी जा सकती है। ऐसा सोचने वाले यह भूल जाते हैं कि ऐसा भी वक्त आ सकता है जब पैसा होने के बाद भी कई बार हाथ मलते रह जाने जैसे हाल हो जाते हैं। जोर की भूख लगी हो लेकिन कुछ खाने को ही नहीं मिल पाए, किसी सुनसान रास्ते में हमारे किसी परिचित की तबीयत बिगड़ जाए और उपचार न मिल पाने के कारण जान ही चली जाए। इस तरह के हालात में तो जेब में रखे बैंकों के एटीएम, पर्स में रखे नोट भी कुछ देर तो बेकार ही रहेंगे।

सदियों से कहते और सुनते आए हैं पैसा तो हाथ का मैल है लेकिन हम है कि इस सच को समझना ही नहीं चाहते कि जब पैसा नहीं था तब हम लोगों के कितने करीब थे और जब से पैसा बरसने लगा तब से कौन लोग हमारे करीब हैं। क्यों हमें अपने लोगों की जरूरत अकेलेपन या मुसीबत में ही महसूस होती है। शायद इसीलिए की जो हमारे अपने होते हैं उन्हें हमारे पैसे कि नहीं हमारी परवाह होती है। जो अपना है वह सुख में हमसे दूरी बनाना जानता है लेकिन हम कभी मुसीबत में घिर जाए तो पल पल साथ रहने के बाद भी यह दर्शाने कि कोशिश नहीं करता कि वह हमारे साथ है। ये खुशियों की बारिश और सुख दु:ख के ये बादल शायद इसीलिए उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं कि हम अपने परायों कि पहचान करना तो सीख ही जाएं। ऐसे में भी यदि हम समझ ना पाएं तो फिर अपनों से दूर रहने पर उनकी कमी महसूस करना ही विकल्प बचता है। ऐसा बुरा वक्त जीवन में न आए इसका तरीका तो यही है कि हम पैसों से ज्यादा अपनों को महत्व दें। वरना तो चिडिय़ा खेत चुग जाएगी और हम हाथ ही मलते रह जाएंगे।

ब्लॉग : पचमेल से साभार

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