Saturday, June 5, 2010

सफ़दर हाशमी की कविता - किताब







किताबें

किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।


किताबें करती हैं बातें
बीते ज़मानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की, कल की
एक-एक पल की।
ख़ुशियों की, ग़मों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की।
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें ?

किताबें कुछ कहना चाहती हैं।
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं
किताबों में खेतियाँ लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं
किताबों में राकेट का राज़ है
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों में कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान की भरमार है।

क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
-सफदर हाशमी

Friday, June 4, 2010

काम तो अपने ही आएंगे, पैसा नहीं../ कीर्ति राणा, शिमला


काम तो अपने ही आएंगे, पैसा नहीं

- कीर्ति राणा, शिमला

ऐसा क्यों होता है कि साया भी जब हमारा साथ छोड़ जाता है तभी हमें अपनों की कमी महसूस होती है। शायद इसीलिए कि जब ये सब हमारे साथ होते हैं तब हमें इनकी अहमियत का अहसास नहीं होता। विशेषकर राजनीति में अपने नेता के लिए रातदिन एक करने वाले तब ठगे से रह जाते हैं कि लाल बत्ती का सुख मिलते ही नेता अपने ऐसे ही सारे कार्यकर्ताओं को भूल जाता है। सुख-दु:ख के बादल उमड़ते घुमड़ते रहते हैं लेकिन छाते की तरह खुद को भिगोकर हमें बचाने वाले अपने लोगों के त्याग को हम अपने प्रभाव के आगे कुछ समझते ही नहीं। ऐसे ही कारणों से हमें बाद में पछताना भी पड़ता है।


माल रोड की ओर से आ रहे अधेड़ उम्र के एक व्यक्ति मुझ से टकरा गए। कुछ गर्मी का असर और कुछ उनकी लडख़ड़ाती चाल, मैंने ही सॉरी कहना ठीक समझा। बदले में वो ओके-ओके कहकर ठिठक गए तो मुझे भी रुकना ही पड़ा। फिर करीब पंद्रह मिनट वो अंग्रेजी-हिंदी में अपना दर्द सुनाते रहे कि दिल्ली में रह रहे पत्नी बच्चों से कई बार फोन पर कह चुका हूं शिमला आ जाओ, आजकल करते-करते छह महीने निकाल दिए। कमरा लेकर अकेले रह रहे उन सज्जन की बातों से यह भी आभास हुआ कि पति पत्नी में कुछ अनबन चल रही है। अकेलेपन की पीड़ा, बच्चों की याद और कुछ नशे के खुमार से उनकी आंखें छलछला आई। बार बार कह रहे थे पत्नी बच्चों के प्यार से प्यारा दुनिया में और कुछ नहीं, अभी वे लोग आ जाएं तो शिमला के ये गर्मी भरे दिन भी ठंडे हो जाएंगे मेरे लिए। अपना गम सुनाने के साथ ही वे ङ्क्षड्रक करने का सच स्वीकारने के साथ यह भी पूछते जा रहे थे स्मैल तो नहीं आ रही है, ज्यादा नहीं बस दो तीन पैग लिए हैं। मैंने जैसे-तैसे उनसे गुडबॉय कह कर पीछा छुड़ाया।

मैंने कई लोगों को देखा है, यूं तो फर्राटेदार हिंदी में बात करते रहते हैं लेकिन पता नहीं इस अंगूर की बेटी का क्या जादू है, इसका सुरूर चढ़ते ही अंग्रेजी में शुरू हो जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि लोग अंग्रेजी शराब के कारण अंग्रजी बोलने लगते होंगे। दरअसल मुझे तो कुछ लोगों के साथ यह ठीक से अंगे्रजी नहीं बोल पाने की कुंठा लगती है जो थोड़ा सा नशा होने पर कुलांचे मारने लगती है। इस बहाने ही सही आदमी के मन में दबा सच और उसकी कुंठा बाहर तो आ जाती है। हल्के से नशे ने उस अधेड़ व्यक्ति के लिए तो आत्म साक्षात्कार का ही काम किया होगा वरना इतनी तीव्रता से बीवी, बच्चों से दूरी का अहसास नहीं होता।

इसके विपरीत हम अपने आसपास ऐसे लोगों को भी देखते हैं जो दौलत के नशे में चूर होने के कारण हर चीज को पैसे से ही तोलते हैं उन्हें किसी की भलाई, अपनेपन की भी परवाह नहीं होती क्योंकि ऐसे लोग उस मानसिकता के होते हैं जो यह मानकर चलते हैं हर चीज पैसे से खरीदी जा सकती है। ऐसा सोचने वाले यह भूल जाते हैं कि ऐसा भी वक्त आ सकता है जब पैसा होने के बाद भी कई बार हाथ मलते रह जाने जैसे हाल हो जाते हैं। जोर की भूख लगी हो लेकिन कुछ खाने को ही नहीं मिल पाए, किसी सुनसान रास्ते में हमारे किसी परिचित की तबीयत बिगड़ जाए और उपचार न मिल पाने के कारण जान ही चली जाए। इस तरह के हालात में तो जेब में रखे बैंकों के एटीएम, पर्स में रखे नोट भी कुछ देर तो बेकार ही रहेंगे।

सदियों से कहते और सुनते आए हैं पैसा तो हाथ का मैल है लेकिन हम है कि इस सच को समझना ही नहीं चाहते कि जब पैसा नहीं था तब हम लोगों के कितने करीब थे और जब से पैसा बरसने लगा तब से कौन लोग हमारे करीब हैं। क्यों हमें अपने लोगों की जरूरत अकेलेपन या मुसीबत में ही महसूस होती है। शायद इसीलिए की जो हमारे अपने होते हैं उन्हें हमारे पैसे कि नहीं हमारी परवाह होती है। जो अपना है वह सुख में हमसे दूरी बनाना जानता है लेकिन हम कभी मुसीबत में घिर जाए तो पल पल साथ रहने के बाद भी यह दर्शाने कि कोशिश नहीं करता कि वह हमारे साथ है। ये खुशियों की बारिश और सुख दु:ख के ये बादल शायद इसीलिए उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं कि हम अपने परायों कि पहचान करना तो सीख ही जाएं। ऐसे में भी यदि हम समझ ना पाएं तो फिर अपनों से दूर रहने पर उनकी कमी महसूस करना ही विकल्प बचता है। ऐसा बुरा वक्त जीवन में न आए इसका तरीका तो यही है कि हम पैसों से ज्यादा अपनों को महत्व दें। वरना तो चिडिय़ा खेत चुग जाएगी और हम हाथ ही मलते रह जाएंगे।

ब्लॉग : पचमेल से साभार

Monday, May 31, 2010

सकारात्मक सोच से सफलता की ओर / जितेन्द्र सोनी



सकारात्मक सोच से सफलता की ओर

अगर हम 'आम' और 'ख़ास' दो शब्दों पर गौर करें तो पाएंगे कि लगभग दोनों शब्द मात्राओं के हिसाब से समान हैं लेकिन अर्थ के हिसाब से दोनों ही अलग हैं क्योंकि आम से खास तक के सफर में कई बार पीढिय़ां गुज़र जाती हैं। हम में से ज्यादातर लोग यथास्थितिवाद के पक्षधर हैं- ना बदलाव, ना नई सोच, ना कोई नवाचार, ना नया सीखने की ललक। बस गुजर जाए किसी तरह एक दिन और- बिना किसी मशक्कत के, शांति के साथ सहूलियत के साथ। 


हम नहीं करते हैं प्रयास अगुवाई और पहल के। करते हैं सिर्फ अनुसरण या सोचते हैं कि कोई और कर ही देगा, फिर करूंगा या मैं ही क्यों? समेट लेते हैं खुद को ओर यही संकुचन बना देता हैं हमें कूपमण्डूक। क्या सारी जि़न्दगी यूं ही बीत जाएगी औरों को बताते-बताते कि वह देखो, उसने बहुत बड़ी सफलता प्राप्त की है या वह संघर्षों से जूझकर भी हमसे आगे निकल गया या उसने यह किया, वह किया आदि-आदि? हम कब तक दूसरों का उदाहरण देते रहेंगे, स्वयं क्यों नहीं बन सकते हैं औरों के लिए मिसाल? क्यों ढकना चाहते हैं खुद को एक झूठे लबादे से और क्यों देना चाहते हैं अपने अहम को झूठी तसल्ली कि मैं कर तो लेता पर क्या करूं परिस्थितियां विपरीत थी या मैं ग्रामीण हूं या अब मेरी उम्र कहां या मेरी किस्मत खराब है या मेरे पास चेक-जेक नहीं हैं?


सार यही है कि हम थोपना चाहते हैं अपनी नाकामयाबी, अपने अनुसरण या पिछड़ेपन को दूसरों पर। हम में से अधिकांश दरअसल हताश, निस्तेज, नाखुश, निष्क्रिय, छिद्रान्वेषी, निराश, पलायनवादी और भाग्यवादी है।


दोस्तो, हमें एक बात अच्छे तरीके से समझ लेनी है कि सिर्फ एक 'ना' कामयाब आदमी को नाकामयाब बना देती है। अगर हम एक निश्चित ढर्रे पर जिन्दगी गुजारना नहीं चाहते हैं और सोचते हैं कि लोग हमारे लिए तालियां बजाएं तो जिन्दगी के हर क्षेत्र में घर, विद्यालय, समाज, प्रशासन आदि में हमें सकारात्मक नजरिया विकसित करना है और लगन व प्रयोगधर्मिता के साथ अनवरत प्रयास करने हैं। फिर सवाल ही पैदा नहीं होता है कि हम असफल हो जाएं। 


एक कथा इस सन्दर्भ में उपयोगी है। एक गांव में एक भयानक राक्षस था जो गांव के बच्चों को डराता-धमकाता और परेशान करता था। एक दिन 17-18 साल का एक गड़रिया उस गांव से गुजर रहा था तो उसने सब कुछ देखकर गांव वालों से पूछा कि आप लोग इस राक्षस से लड़ते क्यों नहीं हो? गांव वालों ने जवाब दिया कि लड़ें कैसे, वह राक्षस तो इतना बड़ा है कि उसे मारा नहीं जा सकता है। तब गड़रिए ने कहा कि नहीं, ऐसी बात नहीं है कि वह इतना बड़ा है कि उसे मार नहीं सकते बल्किवह इतना बड़ा है कि उसे मारो तो चूक नहीं सकते। इतिहास गवाह है कि फिर डेविड नाम के उस गड़रिए ने गुलेल से ही गोलियथ नाम के उस राक्षस को मार डाला और वह ऐसा इसलिए कर पाया कि समस्या को देखने का उसका नज़रिया औरों से अलग और सकारात्मक था।


अब कुछ निराशावादी और पलायनवादी कह सकते हैं कि उपदेश देना सरल है मगर हकीकत में यह नामुमकिन है वगैरह-वगैरह, तो जवाब यह है कि सपने को हकीकत में न बदल पाना हमारी खुद की कमजोरी है। लगातार सही दिशा में किए गए प्रयास ही सफलता दिलाते हैं। एक बार एक गुरकुल में गुरु ने दस शिष्यों को बांस की टोकरी में एक-डेढ़ किमी दूर बह रही नदी से पानी लाने का आदेश दिया। सभी शिष्य नदी की ओर चल पड़े। चार शिष्यों ने कहा कि गुरुजी का दिमाग खराब हो गया है यह एक नामुमकिन काम है क्योंकि पानी बांस की टोकरी के छेदों में से झर जाएगा। वे वहीं आधे रास्ते बैठ गए और दूसरों को भी बैठने को कहा। 


मगर छ: शिष्यों ने उनकी बात न मानकर नदी में से पानी भरा, मगर वही हुआ कि टोकरी ऊंची करते ही पानी झर गया। दस-बारह बार प्रयास करके दो को छोड़कर शेष चारों ने घोषणा कर दी कि यह काम असम्भव है, मेहनत करना व्यर्थ है। मगर उन दोनों ने हार नहीं मानी। वे बांस की टोकरी को नदी में डुबाते, मगर टोकरी ऊपर आते ही पानी झर जाता। लगातार दो घण्टे तक यही करते-करते एक निराश हो गया और बोला कि गुरुजी ने मजाक किया है, यह काम नहीं हो सकता है। मगर अन्तिम शिष्य ने हार नहीं मानी। उसे विश्वास था कि गुरुजी ने कुछ सोच-समझकर ही आदेश दिया है। वह अनथक लगा रहा। 


शाम होने को आ गई। उसके बार-बार बांस की टोकरी में पानी भरने से बांस नमी पाकर फूलने लगे और छेद छोटे होते चले गए। अन्त में ऐसा भी वक्त आया कि उस टोकरी में पानी ठहर गया और शिष्य को विश्वास हो गया कि अब एक-डेढ़ किमी तक थोड़ा-बहुत पानी झरने के बाद भी वह कामयाब होकर गुरजी के पास लौटेगा।


तो दोस्तो यही है जज्बा, एक लगन व सकारात्मक दृष्टिकोण से किया गया प्रयास। आइए, संकल्प लेते हैं और कोशिश करते हैं अभी से सदा मुस्कुराकर, विनम्रता व जिज्ञासा से नया सीखने की और पाल लेते हैं एक ऐसा सपना जो नींद में नहीं आया हो, बल्कि हमें सच होने तक नींद न लेने दे।

जितेन्द्रकुमार सोनी, प्राध्यापक,
राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय,
नेठराना, जिला : हनुमानगढ़


जितेन्द्रकुमार सोनी, गत वर्ष आर.ए.एस.पुरुष वर्ग में टॉपर...और इस वर्ष आई. ए. एस. में   29वीं  रैंक से चयनित...श्री सोनी को मेरी  ओर से हार्दिक बधाई और मंगल कामनाएं... आप और  अधिक उन्नति करें..और पूरी दुनिया में आपका नाम हो........................दीनदयाल शर्मा)


प्रेषक : दीनदयाल शर्मा,
मानद साहित्य संपादक,
टाबर टोल़ी, हनुमानगढ़ संगम, राज.

Sunday, May 30, 2010

ए ट्रिब्यूट माई स्टूडेण्ट : राजेश / जनकराज पारीक

ए ट्रिब्यूट माई स्टूडेण्ट : राजेश

-जनकराज पारीक-

श्रीगंगानगर जिले की तहसील श्रीकरणपुर कस्बे की बिल्कुल ताजा घटना है। वह रविवारकी एक निर्दयी शाम थी और मैं अपने बाएं हाथ में अपने ही दाएं हाथ की कटी हुई अंगुली लिए सड़कों पर लहूलुहान था। यह समय शायद डॉक्टर्स के घूमने-फिरने, खेलने या क्लब जाने का होता है, इसलिए किसी से सम्पर्क नहीं हो पाया। न जाने कौनसी सद्प्रेरणा से मेरे कदम उठे और मैंने अपने आपको बेनीवाल हॉस्पीटल श्रीकरणपुर के आगे खड़े पाया। सामने था गठीले बदन और मझौले कद काएक खूबसूरत नौजवान।
दूर से ही बोला, 'क्या कर लिया, सर?'
'अंगुली कट गई।'
'आओ जोड़ते हैं.......वैसे तो यह काम हड्डियों के डॉक्टर का है, फिर भी कोशिश करते हैं।' जैसे वह अपने आप से कह रहा हो, .......'जुड़ भी सकती है, काटनी भी पड़ सकती है। जुड़ी भी तो टेढ़ी-मेढ़ी ही जुडग़ी।'
'मुझे क्या फर्क पड़ता है। मैंने कहा और उसने एक घण्टे की मेहनत-मशक्कत के बाद टाँके लगा कर ड्रैसिंग कर दी। अंगुली के दोनों ओर गत्ते के टुकड़े लगा कर पक्के प्लास्टर जैसी मज़बूत स्थिति भी बना दी।
पट्टी खुली, तो मैंने विस्मित होकर कहा, 'राजेश, अंगुली तो जुड़ गई!'
'चमत्कार ही है, सर।'
'और जुड़ी भी एकदम सीधी है।'
'आपके सत्कर्मों का फल है, सर।' उसने ऐसे निर्लिप्त भाव से कहा, जैसे उसका कोई योगदान नहीं हो, कोई श्रेय नहीं हो। अभिभूत होकर मैंने कुछ रुपये उसकी जेब मे डालने का प्रयास किया, तो मेरा हाथ थामकर बोला, 'अब ये जुल्म मत करो, सर। मैंने तो अपने ही स्वार्थ के कारण आपकी अंगुली जोडऩे का यत्न किया था।'
'तुम्हारा स्वार्थ?'
'सर, आपके हाथ सलामत नहीं रहेंगे, तो हमारे बच्चों के कान कौन उमेठेगा?' उसने मुस्कराते हुए कहा और दूसरे मरीज़ों की ओर चला गया। न नाम की चाह, न पैसे का मोह, न प्रतिष्ठा की भूख। मुझे लगा, यही वे गिने-चुने लोग हैं, जिनके कारण आज भी यह दुनिया खूबसूरत और जीने लायक बनी हुई है। जाने कब वह समय आएगा, जब हमारे चारों ओर ऐसे ही लोभ, मोह और अहं विगलित निष्काम सेवाभावी प्राणवान व्यक्तित्व होंगे।

(श्री जनकराज पारीक जाने माने कथाकार, कवि एवं गीतकार हैं। आप राजस्थान साहित्य अकादमी की सरस्वती सभा के सदस्य रहे हैं। अनेक कृतियों के रचयिता और पुरस्कारों एवं सम्मान से नवाजे गए श्री पारीक जी की हिन्दी कहानी 'माटी भखै जिनावरां' विश्व की सौ सर्वश्रेष्ठ कहानियों के लिए चुनी गई है।

इनका पता है : 29, मंडी ब्लॉक, श्रीकरणपुर-335073, राज., मो : 09414452728)

'टाबर टोल़ी' अखबार के 1-15 मई, 2010 के अंक से साभार

सर्वोत्तम सुक्तियां- प्रस्तुतकर्ता - दीनदयाल शर्मा



सर्वोत्तम सुक्तियां

1. गलती मत ढूंढि़ए..हल ढूंढि़ए।
-हेनरी फोर्ड कार निर्माता

2. आहिस्ता चलने से नहीं,
सिर्फ चुपचाप खड़े रहने से डर।
-चीनी कहावत

3. आज का महानतम कलाकार भी
कल नौसिखिया था।
-फारमर्स डाइजेस्ट

4. लंबे फासले तय करने हों तो
कई छोटे-छोटे डग भरने ही पड़ेंगे।
-हेलमुट श्मिट, भूतपूर्व जर्मन चांसलर

5. बांट लेने से सुख दूना होता है
और दु:ख आधा।
-स्वीडन की कहावत

प्रस्तुतकर्ता - दीनदयाल शर्मा

Hindi Typing Tool